कोरिया बैकुंठपुर। ईश्वर का दूसरा रूप है प्रकृति, इसीलिए आदिमानव के वंशज आदिवासी प्रकृति को ही ईश्वर मानते हैं, क्योंकि उन्हें मालूम है कि प्रकृति ही जीवन का आधार है जिसमें शामिल है नदी, पहाड़, जंगल,जीव जन्तु, ताल, तलैया और पहाड़ों का सीना चीरकर निकलने वाली छोटी बड़ी नदियां जो आगे चलकर जलप्रपात और बड़े बांध का निर्माण करती है। जल जंगल और जमीन पर रहने वाले करोड़ो जीव जंतुओं की सामूहिक शरण स्थली इस पृथ्वी पर प्रकृति द्वारा ऐसे दृश्य बनाए गए हैं जिसे देखकर प्रकृति के करतब के विविध आयामो के दर्शन दर्शन कर आश्चर्य होता है। हमारे सौरमंडल में हमारे सूर्य के आसपास घूमने वाले नवग्रह में पृथ्वी भी अन्य ग्रहों की तरह ही गोल है जो सूर्य की परिक्रमा करती है एवं स्वयं भी अपनी धुरी पर घूमती रहती है। जिसके कारण दिन और रात होते हैं। पृथ्वी के गोलाकार होने के कारण दूर तक देखने पर आकाश जब जमीन से मिलता दिखाई देता है तब हम इसे क्षितिज कहते हैं। महासागर के बीच बनी विवेकानंद शिला पर खड़े होकर इस क्षितिज के कारण सूर्य आपको समुद्र से उगता दिखाई देता है। यहां आप आकाश को पानी में विलीन होते देखते हैं। प्रकृति का यही अनूठा रूप यदि आप अपनी आंखों से जंगलों के बीच आकाश को छिपते देखना चाहते हैं, यदि आप आकाश और धरती के मिलन को अपनी आंखों से देखना चाहते हैं तब आपको सोनहत के जंगलों के बीच ऊंचाई और गहराई की आंख मिचौली खेलती प्राकृतिक वादियों में फैली "बालमगढ़ी पहाड़" की गोद में पहुंचना होगा।
जंगली पेड़ पौधों का पहाड़ियों की गोद में धीरे-धीरे विकसित होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। यहां जंगलों में गिरे बीज अंकुरित होकर धरती का सीना चीरकर बाहर की दुनिया देखना चाहते हैं। वहीं कई पौधे अपने आप को बचाते हुए सूर्य की ओर बढ़ते हुए सूर्य से मिलना चाहते हैं। इन्हीं युवा पेड़ों के यौवन की खूबसूरती को पहाड़ अपने आंचल में समेट कर छिपा लेती हैं उसे चिंता होती है कि इन जंगलों पर किसी की नजर ना लग जाए। विशाल जंगल के बीच उभरती पहाड़ियों का सौंदर्य दूर से ही दिखाई पड़ने लगता है। जब हम ज्यादा दूर तक देखना चाहते हैं तब क्षितिज सामने आकर इस सौंदर्य को छिपा लेता है। ऐसे दृश्यों को देखने का मौका बहुत कम दिखाई देता है। इसी दृश्य को अपने कमरे में कैद करने के लिए आइए चलते हैं इस बार पर्यटन के लिए कोरिया जिले के "बालमगढ़ी पहाड़" की ओर -
कोरिया जिला मुख्यालय बैकुंठपुर से सोनहत की दूरी लगभग 30 किलोमीटर है। जी हां छत्तीसगढ़ राज्य मार्ग क्रमांक 15 पर स्थित इस सोनहत ग्राम का पठार अपनी ऊंचाई के कारण विशेष आबो-हवा से सराबोर है। यहां का मौसम काफी ठंडा होता है भौगोलिक रूप से सोनहत कोरिया जिले की उत्तर पश्चिमी हिस्से में स्थित है। यह वही क्षेत्र है जहां से कर्क रेखा गुजरती है। पहाड़ियों का यह हिस्सा मैकल पर्वत श्रेणी की बिखरी छोटी-छोटी पहाड़ियां तथा प्रसिद्ध सतपुड़ा पर्वत श्रेणी के पूर्वी विस्तार का हिस्सा भी कहलाता है। यह वही सोनहत पहाड़ है जहां के उत्तर पूर्व दिशा में मेंड्रा पहाड़ी से हसदो नदी निकलकर दक्षिण पश्चिम ढलान की ओर आगे बढ़ जाती है इसी सोनहत के विपरीत दिशा से "गोपद" निकलती है जो अपनी सहायक गोइनी और नेउर नदी से पानी प्राप्त करते हुए एक समृद्ध नदी बनकर आगे बढ़ती है। अपनी लंबी यात्रा के बाद सिंगरौली के पास वर्दी ग्राम में सोन में अपना सम्पूर्ण जल अर्पित कर देती है और सोन के रुप में आगे बढ़ती है। छोटी-छोटी जानकारी के बीच हमारी यात्रा जारी रहती है। सोनहत की पहाड़ियों से निकलकर आगे साढे चार किलोमीटर की दूरी तय कर हम मेंड्रा गांव में हसदो नदी के उद्गम के पास पहुंचते हैं, जो मुख्य मार्ग से 1.5 किलोमीटर दाहिनी और स्थित है। खेत के मेड़ की ढलान पर बने ढोड़ी से (लकड़ियों से बांधा गया जल स्रोत) यह हसदो नदी निकल कर आगे बढ़ती है।
सोनहत ग्राम से आगे 5 किलोमीटर चलने के बाद सड़क पर एक स्वागत द्वार बना हुआ है जहां एक अवरोधक लगाकर छ.ग. वन एवं जलवायु परिवर्तन विभाग द्वारा एक बोर्ड लगाया गया है, जिस पर लिखा है "गुरु घासीदास राष्ट्रीय उद्यान" बैकुंठपुर, "पार्क परिक्षेत्र सीमा प्रारंभ"। इसी मुख्य द्वार के किनारे एक आकर्षक बोर्ड लगाया गया है "गुरु घासीदास तैमोर पिंगला टाइगर रिजर्व" इसी के किनारे एक कार्यालय भवन के ऊपर "पेट्रोलिंग कैंप मेंड्रा पार्क क्षेत्र" लिखा है और सामने की दीवारों पर दो बाघ की तस्वीरें इस भवन को आकर्षक बनाती है। इसका आकर्षण इतना है कि आप अपने कैमरे में जरूर से कैद करना चाहेंगे। जानकारी लेने पर पता चला कि वर्ष 2024 में इस राष्ट्रीय उद्यान को बाघ अभ्यारण के साथ जोड़ दिया गया और अब यह 56 वां बाघ अभयारण्य घोषित किया जा चुका है। जैव विविधता का यह संरक्षण स्थल वर्तमान में अब बाघों का स्वतंत्र विचरण क्षेत्र है। अभी विगत 6 माह पूर्व इसी अभयारण्य क्षेत्र में सुरक्षित स्थान महसूस करते हुए एक मादा बाघ ने अपने दो शावको को जन्म देकर यह साबित किया कि यह क्षेत्र अब बाघों के लिए सुरक्षित स्थल है। "गुरु घासीदास तैमूर पिंगला बाघ अभ्यारण्य" अब देश का तीसरा सबसे बड़ा अभ्यारण है जिसका विस्तार चार जिलों में है मनेन्द्रगढ़ से पलामू (झारखंड) तक लगभग 210 किलोमीटर की सीमा क्षेत्र के विस्तार के बाद यह अभ्यारण्य अब एशिया का सबसे बड़ा बाघ अभयारण्य बन चुका है। अभ्यारण्य के मुख्य द्वार पर चार पहिया वाहन के घुसने से पहले आपको एक छोटी राशि देकर रसीद लेनी होगी। छत्तीसगढ़ वन विभाग द्वारा सुरक्षा की दृष्टि से आपका नाम आपकी गाड़ी नंबर एवं गंतव्य स्थल की जानकारी अंकित कर पंजी में दर्ज किया जाता है। आप यहां पर बैठे वन विभाग के कर्मचारियों से इस स्थल में उपलब्ध पर्यटन की जानकारी भी ले सकते हैं।
मुख्य द्वार का आकर्षण हमें कई जगह बांधे रखता है कुछ सुरक्षा निर्देशों एवं जानकारी की फोटो लेकर जब हम आगे बढ़ते हैं यहां से लगभग 3 किलोमीटर आगे रास्ते में लगा बोर्ड हमें रोक लेता है बोर्ड में लिखा है "हसदो पॉइंट उद्गम स्थल, प्राकृतिक विहंगम दृश्य", गुरु घासीदास राष्ट्रीय उद्यान बैकुंठपुर। यहां पहुंचकर हमारा सामना होता है कुछ नवयुवकों से जो अपने दो पहिया वाहन से यात्रा पर निकले हैं मुलाकात के बीच उन्होंने इस स्थल की बहुत तारीफ की। आगे बढ़ने पर हमने देखि महुलाईन की लंबी बाहें कई पेड़ों में गल बहिया डालकर पेड़ों पर अपना अधिकार जमा लिया है। एक पेड़ से दूसरे पेड़ तक जाने के लिए जमीन में अपनी लताओं का जाल फैला रखा है। इसका यह दृश्य आपको भी 10 मिनट बांध कर रखता है। हमारे साथ चलते परमेश्वर सिंह मरकाम ने बताया कि इस महिलाएं से यहां के जंगल समृद्ध हैं जंगलों के बीच रस्सी का उपयोग इसी में ऑनलाइन के लताओं से किया जाता है और इसके पत्तियों से दोना पत्तल बनाए जाते हैं। महुलाईन से नजर हटते ही अभी हम 20 कदम आगे चले होंगे कि एक पहाड़ी का किनारा हमें जंगल की गहराई और सघनता दिखाने को आतुर दिखाई पड़ता है। पर्यटकों की सुरक्षा के लिए छत्तीसगढ़ वन विभाग ने यहां फेंसिंग लगा दिया है ताकि पूरी तन्मयता के साथ प्रकृति का आनंद लिया जा सके। पास लगे बोर्ड से यह पता चलता है कि इसी पहाड़ी की गहराई से मूल रूप से हस्दो नदी निकलती है और भूमिगत होकर आगे लगभग 8 किलोमीटर चलती है और एक खेत के मेढ़ के नीचे बहती जलधारा के रूप में निकलकर आगे का रास्ता तय करती है। रास्ते में चलते हुए वन विभाग के बोर्ड कई वन्य प्राणियों के विचरण क्षेत्र की जानकारी देते हैं, जिसमें हाथी एवं बाघ विचरण क्षेत्र प्रमुख हैं। काले मुंह के बंदरों का सड़क किनारे छोटे-छोटे बच्चों को लेकर इस पेड़ से उसे पेड़ पर कूद जाना रोमांचित करता है। ऐसा लगता है कि थोड़े से हाथ की पकड़ ढीली हुई तो बंदर अपने बच्चों के साथ नीचे आ जाएगा लेकिन मां से चिपका बंदर का बच्चा अपनी मां की पकड़ से निश्चिंत होकर यहां वहां पेड़ों पर मां की छाती से चिपक कर दौड़ता रहता है। कुदरत का यह करिश्मा भी कम नहीं है।
यहां के सौंदर्य को कैमरे में कैद कर अभी हम लगभग 4 किलोमीटर चले होंगे कि एक बड़ा बोर्ड हमारा ध्यान आकर्षित करता है, लिखा है "वेलकम टू बालम गढ़ी नेचर ट्रेल" ।
यहां पर लगे अवरोधक पर वन कर्मचारी आपको रोकते हैं क्योंकि चार पहिया वाहन हेतु सीमित शुल्क जमा करके ही आप अंदर जाने की अनुमति प्राप्त कर सकेंगे। घने जंगलों के बीच गुजरते हुए हम साल, बीजा, महुलाइन के जंगलों के साथ बड़े-बड़े घास के मैदान के बीच से गुजरते हैं। ऊंचे नीचे सड़क मार्ग को पार करते हुए हम कच्ची रोड से लगभग 5 किलोमीटर की यात्रा पूरी कर 1350 फुट की ऊंचाई पर अपनी गाड़ी खड़ी कर देते हैं। पूरे सफर में हम कच्चे मार्ग एवं गड्ढे से निकलती गाड़ी में चलते हुए हम निश्चिंत थे क्योंकि हमने बड़े चके की गाड़ी स्कॉर्पियो ले रखी थी। आप भी यदि यात्रा पर आ रहे हो तब बड़े चके की गाड़ियां लेना ही आपके लिए उपयुक्त होगा, इसका विशेष ध्यान रखें , क्योंकि यहां सड़क कच्ची है और बरसात की मिट्टी के कटाव की वजह से जगह-जगह ऊंची नीची छोटी-छोटी पहाड़ियों की तरह गाड़ियां उतरती हैं। गाड़ी से उतरते ही हमारा ध्यान प्रकृति की उन पहाड़ियों और हजारों फीट नीचे की घाटियों के दृश्य पर जाता है जिसे देखकर मन कहता है कि वह क्या प्रकृति का ऐसा कोना भी होता है जहां खुशियां बिखरी पड़ी हो। कैसे प्रकृति का यह कोना अब तक हमसे अछूता रहा है। सामने सीमेंट से लकड़ियों की आकृति में बना एक खूबसूरत वॉच टावर का ऊंचा मचान हमारा स्वागत कर रहा था। नीचे बोर्ड पर लिखा था- "बालम पहाड़"।
बालम पहाड़ की जानकारी लेने पर पता चलता है कि लगभग 400 वर्ष पूर्व यह क्षेत्र सीधी के गोंड राजवंश के राजा बालेन्द की राज्य सीमा में आता था। इसलिए इस पहाड़ी का नाम "बालम पहाड़" रखा गया है।





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