श्रीहनुमान जी की महिमा



जितेंद्र सिंह की विशेष प्रस्तुति

कोरिया छत्तीसगढ़। गोस्वामीजी जब हनुमानजी के गुणों को लिखना प्रारम्भ करते हैं तो लिखते हैं - अतुलितबलधामं, हेमशैलाभदेहं, दनुजवनकृशानुं, ज्ञानिनामग्रगण्यम्। फिर उन्हें लगा होगा कि एक-एक गुण कहाँ तक लिखें तो लिख दिया - *सकलगुणनिधानं।* हनुमानजी सम्पूर्ण गुणों के निधान हैं। मेरी अपनी दृष्टि में हनुमानजी में निराभिमानिता की पराकाष्ठा है। कभी-कभी सोचता रहा हूँ कि हनुमानजी ने जो अशोक वाटिका का विध्वंस किया, राक्षसों का संहार किया और लंका का दहन कर डाला - ये सब कार्य परम दयालु हनुमानजी ने कैसे क्रियान्वित किया होगा ? तो वह पंक्ति याद आ गयी, जो उन्होंने समुद्र के ऊपर से जाते हुए मैनाक पर्वत से कहा था - *राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम।।* अर्थात् हनुमानजी जो कुछ करते हैं, वह कार्य रामकाज होता है। सुन्दरकाण्ड में जब रावण अपनी पटरानी मंदोदरी और अन्य रानियों के साथ सीताजी के पास आता है, उस समय हनुमानजी अशोकवृक्ष पर ही पत्तों की ओट में छिपे हुए थे। उन्होंने रावण के दुर्व्यवहार देखा भी और उसके कठोर वचनों को सुना भी। अंत में रावण चन्द्रहास तलवार से सीताजी का सिर काटने के लिये दौड़ पड़ता है। कल्पना कीजिये उस समय हनुमानजी पर क्या बीती होगी ? वे अपने को कैसे रोक पाये होंगे। रावण सभी राक्षसियों को कहता है *सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई।।* फिर सीताजी को एक महिने का समय देकर चला जाता है। उन राक्षसियों में त्रिजटा नाम की एक राक्षसी थी।‌ वह अन्य सभी राक्षसियों से कहती हैं -

*सपनें बानर लंका जारी।*

*जातुधान सेना सब मारी।।*

त्रिजटा की बातें सुनकर हनुमानजी अचंभित हो जाते हैं। क्योंकि लंका में वानर के रूप में उनकी उपस्थिति को उस राक्षसी ने सपने में देख लिया था। उसने यह भी कहा कि - *सपनें बानर लंका जारी।* अब प्रभु का ऐसा कोई आदेश तो था नहीं  कि लंका भी जलानी है। प्रभु ने हनुमानजी से केवल इतना कहा था कि -

*बहु प्रकार सीतहि समुझाएहु।*

*कहि बल बिरह बेगि तुम्ह आएहु।।*

तो ये मानो त्रिजटा के माध्यम से हनुमानजी के लिये ऐसा संदेश था। आगे चलकर जब रावण हनुमानजी की पूँछ में आग लगा देने का आदेश देता है तो हनुमानजी विचार करते हैं - प्रभु ! कहाँ से मैं लंका दहन की सामग्री, आग इत्यादि लाता। आपको लंका जलवानी थी तो आपने उसका इंतजाम भी रावण से ही करा दिया। अशोकवाटिका में हनुमानजी ने माता सीता से फल खा लेने की आज्ञा माँगी थी तो फल खाया सो तो ठीक। लेकिन फल के वृक्षों को क्यों तोड़ दिया ? वाटिका को क्यों तहस-नहस कर डाला ? ऐसा प्रश्न हनुमानजी से रावण ने भी पूछा था ? 

*कह लंकेस कवन तैं कीसा।*

*केहि कें बल घालेहि बन खीसा।।*

रे वानर ! तू कौन है ? किसके बल पर तूने वनको उजाड़कर नष्ट कर डाला ? रावण का ये प्रश्न हनुमानजी को अच्छा लगा कि किसके बल से ? अर्थात् बन्दर में इतना बल तो होता नहीं। हनुमानजी पहले तो भगवान के बल का वर्णन करते हैं और फिर कहते हैं - *जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि। -* रावण ! तुम्हारे और मेरे बल का स्त्रोत एक ही है। हाँ ! इतना अन्तर अवश्य है कि मुझे वह बल सीधे प्राप्त है और तुम्हें जो बल प्राप्त हुआ है, वह शिवजी के माध्यम से हुआ है। हनुमानजी सीताजी से कहते हैं -

*सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा।*

*लागि देखि सुंदर फल रूखा।।*

अति तो ठीक है, लेकिन 'अतिशय' से क्या अभिप्राय है ? हनुमानजी से माता पूछ सकती हैं - मार्ग में खाने को कुछ नहीं मिला ? तो हनुमानजी का कहना था, माता ! सब खाने वाले मिले। सुरसा, सिंहिका, लंकिनी सब मुझे खा जाना चाहती थीं। मैं तो जन्मजाति भूखा हूँ। आज आप मिली हैं तो मेरी भूख अतिशय हो गयी है। सीताजी, पुत्र के क्षति से सशंकित हो जाती हैं और कहती हैं - पुत्र ! 

*सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी।*

*परम सुभट रजनीचर भारी।।*

हनुमानजी कहते हैं -

*तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं।*

*जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं।।*

देखिये ! मानस में दो वाटिका हैं। एक जनकजी की पुष्प वाटिका, जो विदेह की, ज्ञान की वाटिका है और दूसरी अशोक वाटिका, जो रावण की है वह मोह की, देहाभिमान की वाटिका है। *भक्ति की प्राप्ति के बाद तो मोह की वाटिका का विध्वंस तो होना ही चाहिये था।* रावण के दरबार में जब हनुमानजी बंदी बना कर ले जाये गये थो तो रावण उनसे पूछता है -

*मारे निसिचर केहि अपराधा।*

*कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा।।*

रावण के इस प्रश्न का उत्तर हनुमानजी देते हैं - *जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे।* प्राण रक्षा सर्वोपरि धर्म है। जिन्होंने मुझे मारा, उनको मैंने भी मारा। आज जो शीर्षक लिया है - *है कपि एक महा बलसीला।।* ये वाक्य रावण ने अंगद से कहा था।  आज यहीं से शुरुआत करने की सोच कर शुरु हुआ था। और रावण ने जो कुछ अंगद से कहा - वह हनुमानजी के चरित्र का सटीक परिचय है। रावण, हनुमानजी के अलावा रामजी की सेना के किसी भी योद्धा से प्रभावित नहीं होता है। वह अंगद के समक्ष एक-एक का नाम गिनवाते हुए उनके बल की आलोचना करता है। लेकिन रावण मानता है कि सारी सेना में केवल एक ही योद्धा है, जो महाबली होने के साथ-साथ शीलवान् भी है। और इन दोनों गुणों का विलक्षण एकत्रीकरण हनुमानजी के चरित्र में है। इसी प्रकार रावण के दो गुप्तचरों द्वारा रावण के समक्ष जो रामजी की सेना का वर्णन किया गया है, उसको सुनकर रावण को अपने मन के भय को छिपाना पड़ा था। शुक और सारण हनुमानजी के लिये जिस पंक्ति का वर्णन करते हैं, जो रिपोर्टिग करते हैं, उसे अगले पोस्ट में लिखने का प्रयास करते हैं।।


       *।।  श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये  ।।*

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