क्या हम प्रकृति को विनाश के लिए बाध्य कर रहे हैं?

                

  


                 

कोरिया बैकुंठपुर।  आध्यात्मिक चिंतन में पुराणों में विस्तृत वर्णन मिलता है कि यह पृथ्वी कई बार बसी है और नष्ट हो चुकी है जिसे हम प्रलय का नाम देते हैं. इसी प्रकार वैज्ञानिक शोध से प्रमाणित हो चुका है कि पृथ्वी पर करोड़ों वर्ष पहले जीवन कई बार विकसित हुआ और समाप्त हो चुका है. डायनासोर जैसे विशाल काय प्राणी इस पृथ्वी के अलग-अलग हिस्सों में विकसित हुए और अचानक समाप्त हो गए. उनकी पूरी प्रजाति नष्ट हो गई. आध्यात्मिक पक्ष के पक्षधर राजा दंड के राज्य के बारे में अच्छी तरह जानते हैं.  जिनका साम्राज्य लगभग पूरे भारत में गंगा से लेकर गोदावरी तक फैला हुआ था. जानकारी मिलती है कि राजा दंड के गुरु शुक्राचार्य ने राजा से नाराज होकर उनके पूरे राज्य को नष्ट कर दिया था. आग और पानी ने प्रलय का रूप ले लिया और इस समाप्ति के बाद पुनः प्रकृति ने स्वयं को संतुलित कर दिया और विशाल नदियां और जंगलों ने इस प्रकृति को पुनः मानव के रहने योग्य बना दिया.  यह अलग पक्ष है कि उसमें बाद मे दानवों ने जीवन प्रारंभ किया.   प्रकृति समय-समय पर हमें सचेत करती रहती है. अभी कुछ वर्षों पहले हमने कोविद-19 बीमारी की चपेट में प्राण वायु ऑक्सीजन नहीं मिलने के कारण हजारों लाखों लोगों का जीवन समाप्त होते देखा है फिर क्यों हम इतनी जल्दी इन प्राकृतिक प्राकृतिक घटनाओं को भूल जाते हैं. क्या ऐसा नहीं लगता कि हम विकास के नाम पर विनाश की ओर धीरे-धीरे कदम बढ़ा रहे हैं चिंतन की इसी कड़ी को हम आगे बढ़ाते हैं....

                  


 पृथ्वी के प्राकृतिक संरचना में सूर्य, चंद्र, सागर,  नदियां, हवा, पानी और विशाल वनों के साथ-साथ इसमें जन्म लेकर जीवन प्राप्त करने वाले जीव जंतु एवं मानव जीवन भी शामिल है जो प्रकृति के संतुलन से प्रभावित होता है.  विद्वानों ने कहा है कि प्रकृति के पास सबके लिए सब कुछ है लेकिन उसका उपयोग सीमा से ज्यादा मत करो अन्यथा प्रकृति के द्वारा नियंत्रण करने में मानव एवं अन्य जीव जंतु नष्ट हो जाएंगे. प्राकृतिक संपदा को हम केवल अपने लिए उपयोग करना चाहते हैं आगे आने वाली पीढ़ी के लिए संरक्षित करना और बचाए रखना हमारा और हमारी सरकारों का ध्यान नहीं रह गया है. यह गहरी चिंता का विषय है. जरा विचार करें कहीं हम प्रकृति को विकास के स्थान पर विनाश करने हेतु बाध्य तो नहीं कर रहे हैं?


                       


 मानव को अपनी सुख सुविधाओं हेतु विकास का अधिकार है किंतु संतुलित पर्यावरण के नुकसान के साथ ही विकास उचित है. इसे हम बड़े-बड़े अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भी स्वीकार करते रहे हैं लेकिन क्रियान्वयन के स्तर पर अपने ही देश में ऐसी कौन से दबाव उत्पन्न होते हैं जिसके कारण हम इनका पालन नहीं कर पाते.  भारत जैसे देश की संस्कृति में  धर्मों में  पशु पक्षियों एवं वन्य जीव को देवताओं का वाहन माना जाता है ताकि उनके जीवन की सुरक्षा हो सके इसी तरह वन संपदा में भी अलग-अलग पेड़ों को धार्मिक मान्यता देकर उनके जीवन को बचाए रखने एवं लंबी उम्र के लिए उनका संरक्षण करने का संदेश दिया जाता है. बरगद, पीपल, तुलसी एवं इससे जुड़े हुए कई वृक्ष इसी श्रेणी में आते हैं जिनके साथ आध्यात्मिक कहानियां में हमारा या हमारे परिवार का जीवन जुड़ा हुआ रहा है लेकिन विकास की धुरी पर हम या हमारी सरकारी इस और चिंतित दिखाई नहीं पड़ती.  खनिज दोहन  के लिए सिद्धांत है कि भविष्य की पीढ़ी को ध्यान में रखकर संरक्षण सहित उत्खनन किया जाना चाहिए.  लेकिन वर्तमान व्यवस्था में इस दिशा में हमारी सोच कमजोर  साबित हो रही है.  राजस्थान सरकार द्वारा कोयले के उत्खनन के लिए छत्तीसगढ़ के हसदो अरण्य जंगल के क्षेत्र में जितने बड़े पैमाने पर जंगल काटे जा रहे हैं उसका परिणाम हमें तत्काल नहीं लेकिन आने वाली पीढ़ी को भुगतना  होगा.    "हाथियों के आवागमन का मार्ग अवरुद्ध होने से उनके जीवन और इसी क्षेत्र में बहती हुई हसदो एवं गेज नदी के बहाव पर  भी गंभीर संकट दिखाई देता है.  इन जंगलों के कटने से मिट्टी का क्षरण होगा जिससे बढ़ने वाली गाद  से कोरबा के बांगो बाँध भी  प्रभावित होगें.  ध्यान रहे कि इसी बांगो बांध पर कोरबा में चलने वाली छत्तीसगढ़ की महत्वपूर्ण 21 विद्युत इकाइयां संचालित है जिन्हें आवश्यक पानी अपने इसी बांगो बांध से दिया जाता है . कहीं ऐसा तो नहीं कि आने वाले समय में छत्तीसगढ़ के विद्युत इकाइयां भी इससे प्रभावित हो जाए".  इस कटाव से हसदो नदी एवं इसके आसपास की जैव विविधता भी नष्ट होने जा रही है.  स्थानीय क्षेत्र के लोगों का विरोध एवं चिंता के बावजूद इन जंगलों का कटाव कहां तक न्यायोचित है, यह बहुत बड़ा प्रश्न है जिसकी गूंज राज्यसभा एवं विधानसभा में भी सुनाई पड़ती है.  फिर भी  शासन प्रशासन द्वारा चुप्पी साध लेना कई   प्रश्नों को जन्म देता है.  कभी कभी लगता है कि आखिर वह कौन सी शक्तियां है जो इस तरह के दबाव उत्पन्न करती हैं. इस पर भी जागरुकता की आवश्यकता है.  क्या हम मिल बैठकर सभी पक्षों को ध्यान में रखकर इनका हल नहीं निकाल सकते.  एक प्रश्न आज बड़ी तेजी से उभर रहा है कि क्या लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि एवं प्रशासनिक अधिकारी ही समाज एवं देश के शुभचिंतक होते हैं स्थानीय निवासियों की इस चिंता मे कोई भूमिका नहीं होती . यदि स्थानीय निवासी भी इस देश के विद्वान  नागरिक है तब इस तरह के  विकास के लिए होने वाली प्राकृतिक क्षति में शामिल समस्याओं के समाधान मैं उनके प्रस्ताव  क्यों शामिल नहींकिये जाते. .  कोयले का उत्खनन भूमिगत प्रणाली से करके भी  जंगलों एवं नदियों को बचाते हुए लंबे समय तक संरक्षित कर लेने का विकल्प  भी हमारे सामने है लेकिन खुली खदान पद्धति से प्रकृति की धरोहर नदियां, पहाड़, और वन संपदा पूरी तरह नष्ट हो जाएगी. इस पर अब भी पुनर्विचार की आवश्यकता है.

                        विगत दिनों पत्र पत्रिकाओं एवं मीडिया की सुर्खियां भी अपने लेख के माध्यम से जनता एवं सरकारों को सचेत करने का कार्य करती रही है.  विश्व स्तर पर प्रति व्यक्ति पेड़ों की संख्या पर नजर डालें तब लगता है कि कनाडा जैसे छोटे देश में प्रति व्यक्ति पेड़ों की संख्या 10163 है. इसी तरह ऑस्ट्रेलिया,अमेरिका, ब्रिटेन,  फ्रांस जैसे छोटे देश की संख्या प्रति व्यक्ति सैकड़ो में है किंतु भारत की स्थिति मात्र दहाई की संख्यामे सिमट गई है.भारत  मे यह संख्या  मात्र 28 पेड़ प्रति व्यक्ति उपलब्ध है.  क्या यह हमारी चिंता का विषय नहीं होना चाहिए.  इसके बाद भी हम इसे और ज्यादा नष्ट करने पर तुले हुए हैं. मानव के अस्तित्व के लिए वनों का संरक्षण और संतुलित विकास आज सबसे बड़ा मुद्दा है. इसकी अनदेखी करके हम किस दिशा की ओर जा रहे हैं यह बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह है. सरकारी आंकड़ों में वनों के विकास   हेतु पौधों के रोपण दिखाए जाते हैं जो  उद्योगों द्वारा नष्ट होने वाले पेड़ों से दो गुना या तीन गुना भी होते हैं,  लेकिन हमें यह जानना होगा कि अभी लगाए गए  पौधे    25 से 50 वर्षों या  सैकड़ो वर्षों में जंगल बन पाएंगे.  औद्योगिक इकाइयों द्वारा जंगलों के अनुकूल पेड़ों के स्थान पर झाड़ियां का रोपण  करके खाना पूर्ति की खबरें भी हमेशा पत्र-पत्रिकाओं की सुर्खियां बनी रहती है जिसकी सत्यता उत्खनन की खुली पद्धति से कोयला खदानों द्वारा निर्मित पहाड़ियों पर देखा जा सकता है. पत्र पत्रिकाओं की इस बारे में छपने वाली खबरों की अनदेखी भी नहीं की जा सकती.

                          सड़क, बांध, बिजली जैसे विकास की योजनाएं जंगलों को नष्ट कर रही है लेकिन इसे जरूरी कहा जा सकता है और इसके लिए कुछ पेड़ नष्ट भी हो गए तो  उसकी भरपाई हम सिंचाई एवं वन लगाकर कर लेंगे किंतु उत्खनन के लिए अभ्यारण्य राष्ट्रीय उद्यानों को भी दांव पर लगाकर नष्ट करने  से पहले हमें गंभीर चिंतन की जरूरत है. कभी-कभी ऐसा महसूस होता है कि आर्थिक संसाधनों के विकास का यूरोपीय विकास का ढांचा क्या भारत के लिए उचित है.  इस पर भी आज पुनर्विचार की   आवश्यकता है. सत्यता भी यही है कि यूरोपियन देश और भारतीय पर्यावरण का अंतर अलग-अलग है  जिससे हमारा समाज और संस्कृति प्रभावित होती है हमें भारतीय संस्कृति के अनुरूप विकास की योजनाएं बनानी होगी. यूरोपीय देश  ठंडे देश हैं वहीं भारत की प्रकृति गर्म देश के रूप में मानी जाती है.  भारतीय समाज के इस  चिंतन में सरकारों एवं जनप्रतिनिधियों को गंभीरता  से शामिल होना आज की आवश्यकता है.  देश के सांस्कृतिक विकास  की अनदेखी कर आर्थिक विकास को ही सर्वोपरि  विकास मान लेना क्या उचित है यह हमारे चिंतन का विषय होना चाहिए. हमने विगत 5 वर्षों में लगभग 96 हजार हेक्टेयर वनों की बलि दे दी है जिसमें से लगभग 179 खनन प्रस्ताव की स्वीकृति देकर लगभग 19 हजार हेक्टेयर वनों को काटा जा रहा है. यह कितना उचित है इस पर पुनर्विचार की आवश्यकता है. विकास के नाम पर स्थानीय लोगों का सहयोग न लेकर पुलिस की निगरानी में वनों की कटाई दमन की श्रेणी में आता है और यह कितनी न्यायोचित है. एक स्वस्थ समाज के लिए व्यवस्था का यह एक काला धब्बा है. 

नदियों से रेत का अधाधुंध उत्खनन करके नदियों को सुखा देना और उन्हें चट्टानों में परिवर्तित कर देना बहुत बड़ी चिंता का विषय है.   शासन एवं प्रशासन का इस के रोक पर ध्यान क्यों नहीं जाता इस पर कई प्रश्न चिन्ह उठ रहे हैं?  कभी-कभी ऐसा लगता है की गंगा जैसी नदियां जिनकी रेत पतली होने के कारण भवन के उपयोग में नहीं आती यह उनके लिए एक सुरक्षा की ढाल है ऐसा प्रतीत होता है की गंगा इसीलिए जानबूझकर अपने साथ पतली रेत लेकर चलती है. आर्थिक विकास के उत्खनन के लिए होने वाली प्रकृति द्वारा हजारों वर्षों में बनाई गई वनों की कटाई , एवं समाप्ति के इस दौर में सरकार सहित हम सभी को चिंता करनी होगी.  हमें पुनः नए समाधान ढूंढ़ने होंगे. स्थानीय एवं आंचलिक निवासियों की चिताओं को भी परियोजनाओं में शामिल करना हमारी प्राथमिकता में शामिल होना चाहिए. प्रकृति के संसाधनों को आगे की पीढ़ी के लिए बचाने का प्रयास हमारी स्वस्थ सामाजिक एवं नैतिक जिम्मेदारी है. यदि हम समय पर अब भी सचेत नहीं हुए तब आने वाली पीढ़ियां हमें संभ्रांत बुजुर्गों की तरह नहीं बल्कि विध्वंसक आततायी पीढ़ी की तरह याद करेंगे ?

बस इतना ही, 

फिर मिलेंगे .....

चिंतन के किसी दूसरे विषय पर 


वीरेंद्र कुमार श्रीवास्तव



                      

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