पेम अमिअ मंदरु बिरहु भरतु पयोधि गँभीर। मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर।। - गोस्वामीजी ने यहाँ पर एक ऐसी बात कही जो साधारणतया नहीं कही जाती है। क्योंकि समुद्र का मंथन तो व्यक्ति करता है, पर गोस्वामीजी कहते हैं कि भरत समुद्र का मंथन भी समुद्र ने ही किया। नित्य जो दोहा आपके सामने पढ़ा जाता है, उसमें श्रीभरत को तो समुद्र बताया ही गया है, किन्तु भगवान श्रीराम के लिये 'समुद्र' शब्द का ही प्रयोग किया गया है।
तुलसीदासजी कहते हैं कि - पेम अमिअ मंदरु बिरहु भरतु पयोधि गंभीर। मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर।। कृपा के समुद्र भगवान श्रीराम, भरत-समुद्र का मंथन करते हैं। समुद्र के द्वारा समुद्र मंथन की बात बड़ी अनोखी सी है। इसके द्वारा गोस्वामीजी का श्रीभरत के प्रति पक्षपात प्रकट होता है। वैसे तो गोस्वामीजी भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त हैं, लेकिन जब कभी श्रीभरत और श्रीराम की तुलना करनी होती है तो यह दिखाई देता है कि वे भगवान राम की तुलना में श्रीभरत के पक्ष में ही अधिक झुके हैं। तुलसीदासजी कहना चाहते हैं कि श्रीराम और श्रीभरत दोनों भिन्न-भिन्न प्रकार के समुद्र हैं। श्रीभरत प्रेम के समुद्र हैं तथा भगवान राम के लिये शब्द कहा गया कृपा सिंधु। श्रीराम कृपा के समुद्र हैं। कृपा के समुद्र ने प्रेम के समुद्र को मथा, इसका तात्पर्य है कि कृपा-सिंधु प्रभु को ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरी समग्र कृपा के द्वारा भी जीव का कल्याण नहीं हो पा रहा है और तब उन्होंने यह सोचा कि यद्यपि मैंने अवतार लिया और अवतार का मुख्य उद्देश्य कृपा करना ही है, लेकिन इतना होते हुए भी समुद्र मंथन केवल कृपा के माध्यम से नहीं होता, *जब तक कि ग्रहण करने वाले में प्रेम न हो।
व्यक्ति के जीवन में भगवान की कृपा और जीव का भगवान के प्रति प्रेम - ये दोनों जिस समय मिलते हैं, उसी समय जीव के जीवन में धन्यता आती है। भगवान के अन्त:करण में कितनी भी कृपा क्यों न हो, पर जीव के अन्त:करण में यदि प्रेम नहीं है तो वह भगवान की कृपा को कृपा के रूप में देख ही नहीं पायेगा। क्योंकि भगवान की कृपा तो बड़ी विलक्षण है। कभी वह ठीक प्रतीत होती है और कभी बड़ी अटपटी लगती है। ऐसी परिस्थिति में 'भगवान कृपा कर रहे हैं, इसकी अनुभूति के लिये व्यक्ति के हृदय में भगवान के प्रति प्रीति की आवश्यकता है।
यही संकेत श्रीरामचरितमानस में अनेक प्रसंगों में किया गया है कि कृपा को ग्रहण करने के लिये, वस्तु को ग्रहण करने के लिये पात्रता की अपेक्षा है। किसी से पूछा गया कि मेघ की वर्षा हो, इसका उपाय क्या है ? तो उन्होंने कहा कि उसके लिये उपाय की आवश्यकता नहीं है, बरसना तो मेघ का स्वभाव है, वह बरसे बिना रह नहीं सकता। लेकिन मेघ चाहे जितना बरस रहा हो, किन्तु किसी व्यक्ति के पास अगर बर्तन न हो या पात्र होते हुए भी व्यक्ति ने उस बर्तन को उल्टा रख दिया हो तो मेघ की अनवरत वर्षा के द्वारा भी उस पात्र में एक बूँद जल नहीं आवेगा। ठीक इसी प्रकार से भगवान की कृपा के साथ-साथ जब तक जीव का अन्त:करण उस कृपा को ग्रहण करने के लिये प्रस्तुत नहीं होता, तब तक ईश्वर की समग्र कृपा भी व्यर्थ चली जाती है।
अयोध्याकाण्ड के अंत में गोस्वामीजी ने प्रश्न किया कि अगर श्रीभरत का जन्म न हुआ होता तो क्या होता। पर श्रीराम का जन्म न हुआ होता तो क्या होता ?, यह प्रश्न रामायण में तुलसीदासजी ने कभी नहीं उठाया। लेकिन भरत का जन्म न हुआ होता तो क्या होता, यह बात उन्होंने अनेक परिप्रेक्ष्य में देखी और इस प्रश्न को बड़े उच्च स्वर में वे कहते है़ कि जनकनन्दिनी श्रीसीता तथा भगवान राम के प्रेम से परिपूर्ण जो श्रीभरत हैं, उनका जन्म यदि न हुआ होता तो लोगों को सच्चे प्रेम की अनुभूति न हो पाती। सच्चे प्रेम का परिचय प्राप्त न होता।
सिय राम प्रेम पियूष पूरन होत जनम न भरत को। यह तो पहली हानि थी और दूसरी हानि यह होती कि - मुनि मन अगम जम नियम सम दम बिषम ब्रत आचरत को।। बड़े-बड़े मुनियों के लिये भी जो साधनाएँ अगम थीं, उन्हें अपने जीवन में प्रत्यक्ष चरितार्थ करने वाला आदर्श दूसरा कहाँ से आता ? किन्तु उनका अगला शब्द बड़ा सांकेतिक है। गोस्वामीजी से पूछा गया कि संसार में तो प्रत्येक युग में, प्रत्येक काल में, अनेक व्यक्तियों का यश होता है, किन्तु दूसरे यशस्वी व्यक्तियों तथा श्रीभरत की यशस्विता में कोई अन्तर है क्या ? इसका उत्तर देते हुए गोस्वामीजी तीसरी पंक्ति में कहते हैं कि भई ! यश के दो परिणाम हैं। यश का एक परिणाम तो यह है कि जिसकी कीर्ति होती है, वह व्यक्ति समाज की दृष्टि में वन्दनीय हो जाये, उसका गौरव बढ़ जाये और बहुधा होता यही है कि जब किसी व्यक्ति की कीर्ति होती है तो वह लोगों की दृष्टि में ऊपर उठ जाता है तथा वन्दनीय हो जाता है। लेकिन भई ! कीर्ति की सच्ची सार्थकता इसमें है क्या ? इसका उत्तर यह है कि इस प्रकार की कीर्ति से भी समाज में सत्कर्म तो होते ही हैं, क्योंकि मनुष्य जब सत्कर्म करेगा, तभी तो उसकी कीर्ति होगी।।
0 टिप्पणियाँ