"मानवीयता से दूर होती नई पीढ़ी – खोती संवेदनाएं और सिकुड़ता दिल"


कोरिया छत्तीसगढ़। आज की तेज़ रफ्तार ज़िंदगी में इंसान ने तकनीक में जितनी तरक्की की है, उतनी ही तेज़ी से मानवीय संवेदनाएं पीछे छूटती जा रही हैं। एक समय था जब घर-गली-मुहल्ले में एकता, सहानुभूति और सहयोग की भावना गहराई से जुड़ी होती थी। किसी के घर दुख हो या खुशी – पूरा समाज साथ खड़ा होता था। लेकिन आज? अब हम आस-पड़ोस के लोगों के नाम भी नहीं जानते।

क्या सच में हमारी नई पीढ़ी मानवीयता से दूर हो रही है?

हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जहाँ सोशल मीडिया पर एक पोस्ट के लिए हज़ारों लाइक मिलते हैं, लेकिन जब ज़मीनी स्तर पर किसी को मदद की ज़रूरत होती है – तब कोई दिखाई नहीं देता। सड़क किनारे बैठा एक गरीब बच्चा भूखा है, तो हम उसकी तस्वीर खींचकर शेयर कर देते हैं, पर खाना देने का ख्याल बहुत कम लोगों को आता है। कहीं न कहीं ये तस्वीरें हमें आईना दिखाती हैं – कि हम अब ‘देखते हैं, महसूस नहीं करते’।

दया की भावना – क्या वह अब केवल किताबों में बची है?

बचपन में हमने कहानियों में पढ़ा था – “दया धर्म का मूल है।” लेकिन अब दया शब्द भी ‘कमज़ोरी’ समझा जाने लगा है। व्यस्त जीवनशैली, निजी महत्वाकांक्षाएं और स्वार्थ की चादर ने इंसान को इतना घेर लिया है कि वह अब किसी और की तकलीफ को अपनी नहीं समझता।

स्कूलों में तो बच्चों को नैतिक शिक्षा पढ़ाई जाती है, लेकिन घरों में उस पर अमल करना अब दुर्लभ होता जा रहा है। बच्चे अब यह नहीं सीख रहे कि किसी ज़रूरतमंद की मदद करना भी उतना ही ज़रूरी है जितना खुद सफल होना।

"मैं क्यों करूं?" – ये सोच हमें कहां ले जाएगी?

जब समाज में किसी मुसीबतज़दा व्यक्ति को देख कर हम सोचते हैं – “मुझे क्या फर्क पड़ता है?”, “मैं क्यों मदद करूं?” – तब हम भूल जाते हैं कि कोई दिन ऐसा भी आ सकता है जब हमें मदद की ज़रूरत पड़े। मानवीयता का असली रूप तो यही है कि हम बिना किसी स्वार्थ के, बिना किसी पहचान के, किसी के आँसू पोंछने का साहस रखें।

अगर हर व्यक्ति यह सोच ले कि वह किसी की थोड़ी भी मदद करेगा – तो समाज में बदलाव खुद-ब-खुद आने लगेगा। लेकिन जब सब दूसरों की तरफ देखेंगे, तो कोई आगे नहीं आएगा।

हम क्या कर सकते हैं?

बातचीत शुरू करें – अपने बच्चों से, अपने दोस्तों से, अपने साथियों से। दया और सहानुभूति की बातें खुलकर करें।

मदद छोटी हो सकती है, पर असर बड़ा होता है – किसी को खाना खिला देना, किसी गरीब बच्चे को किताबें दे देना या बूढ़े पड़ोसी का हालचाल ले लेना – ये छोटी बातें समाज को इंसानियत से जोड़ती हैं।

स्वयंसेवक बनें – किसी NGO या समाजसेवी संस्था से जुड़ें। वक़्त दें, कुछ पैसा नहीं तो सेवा दें।

सोच बदलें – "सब अपने में व्यस्त हैं" इस सोच से बाहर निकलें। कभी खुद से पूछें – "मैं क्या कर सकता हूँ किसी की मदद के लिए?"

निष्कर्ष – हम फिर से मानवीय क्यों नहीं बन सकते?

हमने चांद पर कदम रख लिए, पर ज़मीन पर गिरते इंसान को उठाना भूल गए। इंसानियत कोई पुरानी बात नहीं है – ये आज भी ज़िंदा हो सकती है, अगर हम चाहें तो।

आइए, इस बदलते समय में हम फिर से संवेदनशील बनें। दया, करुणा और सहयोग को सिर्फ उपदेशों में नहीं, अपने व्यवहार में उतारें। ताकि आने वाली पीढ़ी को हम सिर्फ तकनीक ही नहीं, एक सच्चा दिल भी सौंप सकें।

अगर आप चाहें, तो इस लेख को किसी अभियान, ब्लॉग या मैगज़ीन में भी इस्तेमाल किया जा सकता है। आप इसे और भी विस्तार या स्थानीय उदाहरणों से जोड़ना चाहें तो बताइए, मैं खुशी से मदद करूंगा।

Team whro

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