कोरिया राज्य का ऐतिहासिक सफर: नगर से बैकुंठपुर तक की कहानी


कोरिया छत्तीसगढ़। कोरिया रियासत का इतिहास बेहद रोचक और जटिल है, जिसमें अनेक राजवंशों, युद्धों, और शासन के परिवर्तन के संकेत मिलते हैं। 1600 से पहले का इतिहास अस्पष्ट रहा है, लेकिन प्राचीन ग्रंथों और पुरातात्विक अवशेषों से इसके प्रारंभिक राजवंशों के बारे में जानकारी मिलती है।  


प्रारंभिक शासक और राजधानी,

डाल्टन के अनुसार, बालंद कोरिया के पहले शासक थे। उनकी राजधानी सीधी जिले में थी, जहां उनके वंशज आज भी मड़वास में निवास करते हैं। सरगुजा के भैयाथान ब्लॉक के कुदरगढ़ में देवी महामाया का मंदिर भी उनकी स्थापत्य कला का साक्षी है। सोनहत के पास स्थित मेंड्रा गांव के उत्तर की पहाड़ियों को बालंद पहाड़ के नाम से जाना जाता है।  

कोल राजा और गोंड जमींदारों का प्रभाव,

बाद में कोल राजा ने बालंदों को कोरिया से बाहर कर दिया और 11 पीढ़ियों तक शासन किया। कुछ मतों के अनुसार उनकी राजधानी कोरियागढ़ थी, जबकि अन्य मानते हैं कि यह बचरा गांव के पास थी। संभवतः कोरिया के दक्षिण में कोल और उत्तर में बालंदों का शासन रहा होगा।  


चौहान भाइयों का आगमन और शक्ति का विस्तार,

17वीं सदी में मैनपुरी के अग्निकुल चौहान राजा के चचेरे भाई दलथंबन साही और धारामल साही ने सरगुजा में अपना ठिकाना बनाया। रानी की मदद से उन्होंने विद्रोहियों को खदेड़ा और बाद में भैयाथान क्षेत्र में अपनी सत्ता स्थापित की। धारामल साही ने कोरिया पर कब्जा कर नगर को राजधानी बनाया।  

राजधानी का स्थानांतरण और आधुनिक युग,

1797 में मराठों के साथ संघर्ष के बाद राजा गरीब सिंह ने राजधानी को सोनहत और फिर बैकुंठपुर स्थानांतरित किया। बैकुंठपुर को रणनीतिक रूप से राज्य के केंद्र में स्थापित किया गया। यहां नए महल, तालाब, और मंदिर का निर्माण हुआ।  

स्वतंत्रता की ओर बढ़ता कदम,  

राजा रामानुज प्रताप सिंह देव ने 1931 के गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया और 1947 में भारत की स्वतंत्रता के साथ ही कोरिया राज्य के विलय पर हस्ताक्षर किए। 1 जनवरी 1948 को कोरिया मध्य प्रांत और बरार में मिलाया गया।  

कोरिया राज्य का यह सफर न केवल इसके शासकों की शक्ति और पराक्रम का प्रतीक है, बल्कि यह भी दिखाता है कि कैसे एक छोटा राज्य समय के साथ बदलते राजनीतिक परिदृश्य में खुद को ढालता है।

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