युगतुलसी गुरुवर श्रीरामकिंकरजी महाराज!! ।। शब्द ब्रह्म ।। नाम रामायण ग्रंथ से..



जितेंद्र सिंह की विशेष रिपोर्ट

कोरिया छत्तीसगढ़


समझना ज्ञान है और स्वीकार करना विश्वास। 

गणेशजी विवेक के देवता तो हैं, परन्तु विश्वास के बेटे भी हैं।


 इसलिये यदि एक ओर उनमें विवेक हैं तो दूसरी ओर विश्वास और उस विश्वास की प्रेरणा देनेवाला स्त्रोत भी मिल गया, यही सद्गुरु की महिमा है।


 सद्गुरु वह है जो हमारे अन्तर्मन में भगवान के नाम की महिमा तथा उस महिमा के प्रति विश्वास को उत्पन्न कर दे। गणेशजी ने विवेक से उसका अर्थ ले लिया कि 'राम-नाम' साधारण दृष्टि से दो अक्षर है, शब्द है, 'परन्तु सृष्टि के सृजन में इसका सर्वाधिक महत्त्व है।'


'ब्रह्माण्ड का निर्माण कैसे हुआ ?'

ब्रह्माण्ड का निर्माण कैसे हुआ ? इसके मूल में कौन है ? इस पर पुराणों में बड़े विस्तार से विचार किया गया है। पंचतत्त्व की दृष्टि से अगर विचार करके देखें तो हमें यह पता लगेगा कि आकाश, वायु, अग्नि और पृथ्वी ये पाँच तत्त्व हैं और इनमें सबसे अधिक विस्तार किसका है ? ब्रह्माण्ड की दृष्टि से अगर विचार करके देखें तो सबसे अधिक विस्तार है आकाश का। और 'आकाश शून्यता का प्रतीक है।' इसका तात्पर्य है कि जब संसार का निर्माण हुआ, उसके पूर्व कुछ भी नहीं था, 'केवल शून्यता परिव्याप्त थी।' 


अब आप मन में धारणा कीजिये कि उस आकाश में सबसे पहले क्या व्याप्त होगा ? 


न्याय शास्त्र के ग्रन्थों में इस पर बड़ा विचार किया गया है। जिसमें आकाश के गुण का वर्णन करते हुए कहा गया कि -

                   शब्दगुणकं आकाशं।

आकाश में सबसे पहले 'शब्द' का उदय होता है। आकाश का धर्म शब्द है और इसका अर्थ है कि सृजन का कार्य जब प्रारम्भ होगा तो वह शब्द से ही होगा। अब यह शब्द वैदिक परम्परा के अनुसार 'ऊँ' है तथा पौराणिक परम्परा के अनुसार 'राम' है।


रामचरितमानस में भी इस पर बड़ी गहराई से विचार किया गया है। मनु की साधना क्रमश: बढ़ती गयी। पहले वे राज्य का परित्याग करते हैं। पत्नी को साथ लेकर वन की ओर प्रस्थान करते हैं। इसमें एक विरोधाभास दिखाई देता है कि जब राज्य का परित्याग किया तो फिर पत्नी को भी छोड़कर वन में जाना चाहिये था, जैसा कि अनेक लोगों के जीवन में दिखाई देता है। सन्यास की परम्परा भी यही है। पर मनु ने ऐश्वर्य, सत्ता तथा पद का परित्याग तो किया, परन्तु पत्नी को साथ लेकर गये, पत्नी का परित्याग नहीं किया। इसका पहला सूत्र यह है कि व्यक्ति के अन्त:करण की जैसी स्थिति है, उसको ठीक उसी प्रकार की साधना की पद्धति चुननी चाहिये।


साधना-क्रम में एक पद्धति है वैराग्य की तथा दूसरी है राग की पद्धति। कुछ लोगों के अन्त:करण में वैराग्य की वृत्ति प्रबल होती है। उन्हें संसार के विषयों में रस की अनुभूति नहीं होती और कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं, जिनमें राग की वृत्ति प्रबल होती है और वे संसार के विषयों में राग का अनुभव करते हैं।।


         ।। श्रीरामकिंकर गुरुं शरणं प्रपद्ये ।।

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